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सच या झूठ...?

सच या झूठ ...? बचपन में, जब बच्चा बोलना, समझना सीखने लायक हो जाता है, तब से उसे उसके PARENTS हमेशा यही सीख देते हैं की "बेटा ! सच का साथ कभी मत छोड़ना, चाहे कुछ भी हो सच ही बोलना, हर वक़्त - हर एक situation में"। और फिर वो बच्चा इन्ही अच्छी सीखोंके साथ बड़ा होता है। हर जगह, हर बात में , यहाँ तक कि हर एक रिश्ते में वो सच्चाई का साथ निभाता है, क्योंकि उसके बाल-मन में एक बात अच्छी तरह से घर कर गई होती है कि "झूठ की बुनियाद पर कोई भी रिश्ता ज्यादा समय तक नहीं टिक सकता"। अब वो बालक और बड़ा होता है और जवानी की दहलीज पर कदम रखता है। जवानी की दहलीज पर भी वो बालक जो भी नए रिश्ते बनता है उनमे हमेशा ही सच्चाई का पूरा साथ देता है। वो उन रिश्तों में कभी भी झूठ का साया भी पड़ने नहीं देना चाहता और अपने इस उद्देश्य में वो कामयाब भी होता है। यद्यपि वो शख्श जिसके साथ वो ये नया रिश्ता जोड़ता है (नए रिश्ते से मेरा तात्पर्य - दोस्ती या प्यार से ही है) वो झूठा है। पर ये जान कर भी वो बालक अपने सच के मार्ग से विचलित नहीं होता। वो हर वक़्त हर कदम पर हमेशा ही उसके सामने सच्चाई ही पेश करता है।...