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निराशा... आखिर कब तक ?

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       " घुट घुट कर जीने से अच्छा है कि मर जाओ... " ये वाक्य अक्सर हम सभी ने कहीं न कहीं सुनी या पढ़ी या शायद कही भी होगी, पर अगर घुट - घुट कर जीना आपको रास नहीं आ रहा है तो क्या मर जाना ही ठीक होगा ?        अगर सच में इस बात पर दिल और दिमाग दोनों से शांति पूर्वक सोचा जाए तो एक ही जवाब मिलेगा और वो है - " नहीं "... क्योंकि कोई भी इतनी जल्दी और आसानी से मरना ही नहीं चाहता... चींटी भी बार - बार दीवार से गिर - गिर कर भी आखरी में छत तक पहुँच ही जाती है तो फिर एक - दो हार से परेशान हो कर मरने की ठान लेना तो कायरता ही होगी न ? इसलिए आज अगर आप अपनी कुछ हारों से तंग आ कर कुछ कर गुजरने, मेरा मतलब है कि मरने कि सोच रहें हैं, तो मरने से पहले कम से कम ये अच्छी तरह जानने कि कोशिश जरूर करें कि आखिर गलती हुई है, तो आखिर कहाँ ? और उसे दूर करने का कोई उपाय है या भी नहीं ? अगर जिस किसी ने ये एक बार भी सोच लिया तो वह मरना भूल जायेगा, मतलब अपने मरने का इरादा छोड़ देगा वह...        उसी प्रकार अगर आप घुट - घुट कर जीने को मजबूर हैं, तो उस वजह को...