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मन

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       ये मन भी कितना पागल है, हमेशा किसी न किसी सोच में डूबा रहता है और तो और हमेशा समय और परिस्थिति के विपरीत ही काम करता है. कभी ये अच्छे खासे ग़मगीन माहौल में भी किसी हँसी ठिठोली वाली बात याद करता है, तो कभी ख़ुशी के माहौल में उदास हो जाता है.         कुछ समझ में नहीं आता क्या Chemistry है इस मन की? कभी हमारा 'मन' भरी महफ़िल में भी हमें तन्हा कर देता है, तब हम उस भरी महफ़िल में किसी की कमी महसूस करने लगते हैं और इसी को हम प्यार समझने लगते हैं, पर मेरे ख्याल से प्यार सिर्फ किसी की कमी महसूस करना ही नहीं होता, प्यार तो वो होता है, जिसको परिभाषित कर पाना मुश्किल ही नहीं, वरन नामुमकिन भी है, क्योंकि आज तक इसे किसी ने भी सही तरह से परिभाषित नहीं कर पाया.  " अरे! ये क्या हो गया,  मैं तो अपनी राह से ही भटक गया,  बात कर रहा था 'मन' की  और  प्यार पर आकर अटक गया. "       आखिर ये सब क्या है? ये तो एक छोटा से खेल है इस मन का. ये मन जो कही भी स्थिर नहीं रहता, इसका एक उदाहरण मैं हूँ. मैंने तो बातों-बातों...